कुछ इस अदा से मिलते हो जानां कभी कभी
कांटे भी लगने लगते हैं कलियाँ कभी कभी
जब ज़ब्त-ए-गम दिल पे ना जानां कोई रहा
मोटी सज़ा लिए हैं सर-ए-मिज़्श्गाँ कभी कभी
शायद के नाखुदा को भी लोगो खबर ना थी
रुख अपना मोड़ लेता है तूफान कभी कभी
कुछ यूँ लगा की हुस्न सितारों में घिर गया
देखी जो उन की माँग में अफ्शान कभी कभी
दिल पर लगी जो चोट तो जी भर के रो लिए
यूँ भी किया है दर्द का दरम्यान कभी कभी
नादान हो इस क़दर तुम्हे ये भी खबर नहीं
चलता है मसलेहत से भी इंसान कभी कभी
तुम उन को क्या कहोगे जो झूठी आन के साथ
देखे गये लिबास में उरियां कभी कभी
ईसार में वफ़ा में अकीदत में प्यार में
‘एजाज़’ वो लगा है नुमायां कभी कभी
-एजाज़ असलम